Friday 25 November 2011

रामकथा पर रार क्यों ?

सुभाष गाताडे

शिक्षा संस्थान और सैनिक स्कूलों में क्या फरक होता है ? शिक्षा संस्थान जहां उसमें दाखिला लेनेवाले छात्रों में ज्ञान हासिल करने का जज्बा पैदा करते हैं, स्वतंत्र चिंतन के लिए उन्हें तैयार करते हैं, उनकी सृजनात्मकता को नए पंख लगाने में मुब्तिला होते हैं, वही सैनिक स्कूलों की कोशिश ऐसे इन्सान रूपी रोबोट यानी यंत्रमानव बनाने की होती है, जो सोचें नहीं, बस अपने सीनियरों के आदेशों पर अमल करने के लिए हर वक्त तैयार रहें. लाजिम है कि विचारद्रोही प्रवृत्तियां समाज में जब भी हावी होती हैं, हम यही पाते हैं कि वे शिक्षा संस्थानों और सैनिक स्कूलों के फरक को मिटा देना चाहती हैं. वे ऐसे माहौल को बनाना चाहती हैं कि ज्ञान हासिल करने की पहली सीढ़ी- हर चीज़ पर सन्देह करने की प्रवृत्ति - से शिक्षा संस्थान में तौबा किया जा सके और वहां आज्ञाकारी रोबो का ही निर्माण हो.
रामायण

दिल्ली के अकादमिक जगत में इन दिनों जारी विवाद को लेकर यही कहने का मन करता है और इसका ताल्लुक कन्नड एवं अंग्रेजी भाषा के मशहूर कवि, नाटककार एवं विद्वान प्रोफेसर ए के रामानुजन (1929-1993) के उस चर्चित निबंध ‘थ्री हण्ड्रेड रामायणाज: फाइव एक्जाम्पल्स एण्ड थाटस आन ट्रान्सलेशन’ यानी तीन सौ रामायण: पाँच उदाहरण और अनुवादों पर तीन विचार, से है जिसमें दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व एशिया में विद्यमान रामायण कथाओं की विभिन्न प्रस्तुतियों की चर्चा की गयी है.

अपने अनुसन्धान में उन्होंने यह पाया था कि विगत 2,500 वर्षों में दक्षिण एवं दक्षिणपूर्व एशिया में रामायण की चर्चा तमाम अन्य भाषाओं, समूहों एवं इलाकों में होती आयी है.

मालूम हो कि अन्नामीज, बालीनीज, बंगाली, कम्बोडियाई, चीनी, गुजराती, जावानीज, कन्नड, कश्मीरी, खोतानीज, लाओशियन, मलेशियन, मराठी, उड़िया, प्राकृत, संस्कृत, संथाली, सिंहली, तमिल, तेलगु, थाई, तिब्बती आदि विभिन्न भाषाओं में रामकथा अलग अलग ढंग से सुनायी जाती रही है. उनके मुताबिक तमाम भाषाओं में रामकथा के एक से अधिक रूप मौजूद हैं. उन्होंने यह भी पाया था कि संस्कृत भाषा में भी 25 अलग अलग रूपों में (महाकाव्य, काव्य, पुराण, पुरानी दन्तकथात्मक कहानियां आदि) रामायण सुनायी जाती रही हैं.

वैसे यह बात सर्वविदित ही है कि दक्षिण एव दक्षिण पूर्व के देशों में रामकथाओं का प्रभाव किसी न किसी रूप में आज भी दृष्टिगोचर होता है. मिसाल के तौर पर इंडोनेशिया जैसे मुस्लिमबहुल मुल्क में सड़कें, बैंक, ट्रैवल एजेंसीज, या अन्य उद्यम मिलते हैं, जिनके नाम रामायण के पात्रों पर रखे गए हैं. लोकसंस्कृति में भी किस हद तक रामकथा का वजूद बना हुआ है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है.

इण्डोनेशिया में बच्चे के जनम पर ‘मोचोपाट’ नामक समारोह होता है. अगर परिवार हिन्दु है तो वह धार्मिक आयोजन कहलाता है और अगर परिवार गैरहिन्दु है तो उसे संस्कृति के हिस्से के तौर पर आयोजित किया जाता है. ‘मोचोपाट’ में एक जानकार व्यक्ति लोगों के बीच बैठ कर रामायण के अंश सुनाता है, और फिर श्रोतागणों में उस पर बहस होती है. कभी-कभी यह आयोजन दिन भर चलता है. मकसद होता है, परिवार में जो नया सदस्य जनमा है, वह रामायण के अग्रणी पात्रों की तरह बने. आठवीं-नवीं सदी में इण्डोनेशिया में पहुंची रामायण कथा जावानीज भाषा में लिखी गयी थी.

सवाल यह उठता है कि एक सच्चे भारतीय के लिए- रामकथा के यह विभिन्न रूप, जिसने अलग-अलग समुदायों, समूहों में पहुंच कर अलग-अलग रूप धारण किए हैं- यह हक़ीकत किसी अपमान का सबब बननी चाहिए, या मुल्क की बहुसांस्कृतिकता, बहुभाषिकता, बहुविधता को ‘सेलेब्रेट’ करने का एक अवसर होना चाहिए.

साफ है कि ऐसे लोग, जो भारत की साझी विरासत की हक़ीकत को आज तक जज्ब़ नहीं कर पाए हैं और भारत का भविष्य अपने खास इकहरे एजेण्डा के तहत ढालना चाह रहे हैं, उन्हें रामायण के इन विभिन्न रूपों की मौजूदगी की बात को कबूल करना भी नागवार गुजर रहा है और इसलिए उन्होंने इसे आस्था के मसले के तौर पर प्रोजेक्ट करने की कोशिश की है.

मालूम हो कि विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यापकों की अनुशंसा पर वर्ष 2006 में इस निबंध को पाठयक्रम में शामिल किया था. वर्ष 2008 में हिन्दुत्ववादी संगठनों की छात्रा शाखा ने इसे लेकर विरोध प्रदर्शन किया. उनका कहना था कि इस निबंध को पाठयक्रम से हटा देना चाहिए. अन्ततः मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा तब उसके निर्देश पर चार सदस्यीय कमेटी बनायी गयी, जिसके बहुमत ने यह निर्णय दिया कि प्रस्तुत निबंध को छात्रों को पढ़ाया जाना चाहिए, सिर्फ कमेटी के एक सदस्य ने इसका विरोध किया.

मामला वहीं खतम हो जाना चाहिए था, मगर जानबूझकर इस मसले को अकादमिक कौन्सिल के सामने रखा गया, जहां बैठे बहुलांश ने अपने होठों को सीले रखना ही मंजूर किया. फिलवक्त ‘बहुमत’ से इस निबंध को पाठयक्रम से हटा दिया गया है.

प्रस्तुत विवाद को लेकर प्रख्यात कन्नड साहित्यकार प्रो यू आर अनन्तमूर्ति के विचार गौरतलब हैं ‘‘भारत में हमेशा ही श्रुति, स्मृति और पुराणों में फरक किया जाता रहा है. अलग-अलग आस्थावानों के लिए अलग-अलग ढंग की श्रुतियां हैं, जो वेदों, कुराणों की तरह लगभग अपरिवर्तित रहती हैं. दूसरी तरफ स्मृति और पुराण गतिमान होते हैं और समय एवं संस्कृति के साथ बदलते हैं. भास जैसे महान कवियों ने महाभारत की समूची समस्या को बिना युद्ध के हल किया. यह बात विचित्र जान पड़ती है कि आधुनिक दौर में धार्मिक विश्वासों एवं आचारों का व्यवसायीकरण एवं विकृतिकरण किया जा रहा है. हमारे पुरखे आस्था, विश्वासों की जिस विविधता को सेलिब्रेट करते थे, उस सिलसिले को हम लोगों ने छोड़ दिया है.”

सवाल निश्चित ही महज एक निबंध का नहीं है. यह सोचने एवं तय करने की जरूरत है कि शिक्षा संस्थानों में पाठयक्रम तय करने का अधिकार अध्यापकों का अपना होगा या वहां दखलंदाजी करने की राज्य कारकों या गैरराज्यकारकों को खुली छूट होगी. निबंध को लेकर खड़ा विवाद दरअसल इस बात का परिचायक कि अकादमिक संस्थानों में विचारों के सैन्यीकरण का दौर लौट रहा है, जिस पर आस्था का मुलम्मा चढ़ाया जा रहा है. अभी ज्यादा दिन नहीं बीता जब शिवसेना के शोहदों ने मुंबई विश्वविद्यालय में पढ़ाये जा रहे रोहिण्टन मिस्त्री के उपन्यास ‘सच ए लांग जर्नी’ को हटाने में कामयाबी हासिल की थी, तो कुछ अन्य अतिवादी तत्वों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद जेम्स लेन की ‘शिवाजी’ पर प्रकाशित किताब पर सूबा महाराष्ट्र में अघोषित पाबन्दी लगा रखी है.

ऐसे सभी लोग, जो शिक्षा संस्थानों को खास ढंग से ढालना चाहते हैं, उन्हें इस वर्ष के नोबेल पुरस्कार विजेताओं पर निगाह डालनी चाहिए. इस वर्ष का रसायन का नोबेल इस्त्राएली मूल के डैनिएल शेश्टमान को क्वासिक्रिस्टल्स की खोज को लेकर मिला है, जिसने पदार्थ की स्थापित धारणाओं को भी चुनौती दी है.

मालूम हो कि जब प्रोफेसर शेश्टमान ने पहली दफा यह संकल्पना रखी तो ऐसा वाहियात विचार रखने के लिए विश्वविद्यालय ने उन्हें रिसर्च ग्रुप छोड़ने के लिए कहा, मगर वह डटे रहे. सभी मानवीय ज्ञान क्या मानव की इसी अनोखी आदत से विकसित नहीं हुआ है- सभी चीजों पर सन्देह करो.

निश्चित ही शिक्षा संस्थानों को कुन्द जेहन रोबोट के निर्माण की फैक्टरी के तौर पर देखनेवाले लोग इस सच्चाई को कैसे जान सकते हैं !
 

Sunday 13 November 2011

भारत

भारत-
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी प्रयोग किया जाये
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं

इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में हैं
जो आज भी वृक्षों की परछाइयों से
वक्त मापते हैं
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते हैं
उनके लिए जिंदगी एक परंपरा है
और मौत के अर्थ हैं मुक्ति
जब भी कोई समूचे भारत की
राष्ट्रीय एकता की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है-
उसकी टोपी हवा में उछाल दूं
उसे बताऊं
कि भारत के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर हैं
जहां अन्न उगता है
जहां सेंध लगती है...

Saturday 12 November 2011

काव्य गोष्ठी

विगत दिनों प्रतिरोध ने डी०एस ० बी ०परिसर नैनीताल में छात्रों की काव्य गोष्ठी की जिनमें से कुछ छात्रों की कवितायेँ हम यहाँ दे रहे  हैं

 त्रिवेणी


(1)   न जाने कब खिलते हैं कब मर जाते हैं
       इन फूलों पे नज़र पड़ती नहीं किसी की
       क्यों उस अंधे खुदा को बागवाँ बना रक्खा है।।

(2) कितनी धूल जम गयी है चेहरों पर
     वक़्त गुज़र जाता है ग़र्द उड़ा के रोज़
     बहुत दिनों बाद आज ये तस्वीरें साफ की हैं।।

(3)    उसके बेदाग़ चेहरे को गौर से देखोगे तो
       कई आंसूओं के  दाग़ नज़र आ जाएगें
       स्याही दर्दो की उबरन से कहाँ जाती है भला।।

(4)  फिर आहंग से भर लायी है कलाई अपनी
       चूड़ीवाला गुज़रा था मुहल्ले से अभी
       लड़कियाँ बहुत जल्दी बड़ी हो जाती हैं।।
                                 
संदीप रावत, बी0 एस सी०, तृतीय वर्ष 


 
खनक

सिक्के की खनक
दूर तलक
जाती है
लोग जान जाते हैं, कि
सिक्का ही है
चाहे वह फर्श  पर गिरे
या कि जेब में खनके
बच्चे-बूढ़े सब पहचानते हैं
नयी फसल की महक
बहुत दूर तक जाती है
धान के खेत से, कल शाम को ही लौटा हूँ
ऐसा लगता है कि अब तक गमक रहा हूँ
हवा के माफित
खूशबू, बिखर ही जाती है
मील-दो-मील फैल जाती है
खेतों में बालियाँ खनकती हैं
लगता है सब के सब सोने के सिक्के हैं
पूरा खेत जैसे सोने का है
खूशबूदार सोना
चमकदार सोना
मैं जब भी उदास होता हूँ
मन करता है, खेतों में जाऊँ
सोने के खेत!
कभी देखा हैं आपने?
फसल पकती है तो फिर खेत में
हँसियाँ खनकती है
हँसियों की खनक दूर-बहुत-दूर तलक जाती हैं
हँसिये की खनक दिल्ली तलक जाती है
हँसिया खनकने के साथ साथ चमकती भी है
उसकी ये चमक मामूली नहीं है
बहुत धारधार है,
हँसिया चमकती है
बेशक चमकती है और खनकती है

सिक्का और सोना
ये दोनों भी चमकते हैं और खनकते हैं
और जब ये साथ मिलकर
खनकते हैं और चमकते हैं।
तो ये प्रतिबिंबिंत होते हैं-
मुम्बई और अमेरिका के शेयर बाजारों में
देष के  पूंजीपतियों में दलालों में
किसानों की बेबस निगाहों में
और दोस्तो, मेरे अपने दोस्तों
ये प्रतिबिंबिंत होता है
भूख से लड़ते आदम आकृतियों में
32 रूपये रोज कमाने वाले
 अमीरों में .                                                                                                                

     (२)
 गुलों की नहीं अब खार की ज़रूरत है
 पानी की नहीं अब अँगार की ज़रूरत है
 जो एक बार उठ जाये तो इंक़लाब आ जाए
  देश  को ऐसे बयार की ज़रूरत है  
                                                                                     
  मनीष पाण्डेय
 पत्रकारिता विभाग,कु0 वि0 वि0 नैनीताल 
  मो0 न0-7500195908


थोड़ा सा प्यार 

थोड़ा सा प्यार
इस दुनिया में आने के बाद,
जन्मी मैं एक बेटी बनकर
मन था मेरा एकदम सच्चा
लगा मुझे सब बहुत ही अच्छा।
पहले देखा अपनी माँ को
कितनी सुन्दर   कितनी प्यारी
उसका प्यार पाने के बाद
आयी पापा की बारी।
क्या दोष था मेरा पापा!
मुझे तो कुछ भी न था पता
मेरे आने से पहले तो, खुश थे आप
फिर अचानक क्या हुआ जो हो गये इतने निराश
पापा मैं वही आपकी बेटी, आज इतनी बुरी हो गई
मेरे आने की ख़ुशी , न जाने कहाँ खो गई।
पल गुजरते - गुजरते सब जान गई मैं,
वाह- रे ! दुनिया तेरी रीत पहचान गई मैं
पहले तो मुझे सिर्फ अपनों ने दुत्कारा
फिर न मिला समाज से भी सहारा।
एकदम अकेली, लड़ती हुई इस जिंदगी से
जूझते हुए सबका सामना करती गई
सोचा, बना लूगीं ससुराल को अपना,
लेकिन, था ये सिर्फ एक सपना।
पहले मारा अपनी इच्छाओं को,
फिर आई आत्मा की बारी
एक-एक कर मैंने ये ज़िंदगी
पूरी तरह बदल डाली।
तब भी पायी वही मार, वही दुत्कार
न जाने कितने ऐसे
जुल्म सहती आई अपार।
सब कुछ सहते हुए भी
मैं करती गई अपना कर्म,
हाय! ये कैसा न्याय
न आयी ज़रा भी  शर्म।
क्या पाया मैंने खुद को खोके,
क्या पाया मैंने इतना रोके
पयी तो सिर्फ मार और दुत्कार
कैसे कहूँ, मैंने तो चाहा था, सिर्फ थोड़ा-सा प्यार।।
                                                                     
 -स्वाति सक्सेना, बी. एस सी. तृतीय वर्ष

Wednesday 9 November 2011

जनगीत


                                 बोल अरी ओ धरती बोल

बोल अरी ओ धरती बोल
राज सिंहसन डांवा डोल
       बादल बिजली रैन अंधियारी
       दुख की मारी परजा सारी
बच्चे बूढ़े सब दुखिया हैं
दुखिया नर है दुखिया नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है
सब बनिये हैं सब व्यापारी
बोल अरी ओ.....
       क्या अफरंगी क्या तातारी
       आँख बची और बरछी मारी
       कब तक जनता की बेचैनी
       कब तक जनता की बेज़ारी
       कब तक सरमाये के धन्धे
कब तक ये सरमायेदारी।
                     बोल अरी ओ.....
नामी और मशहूर नहीं हम
लेकिन क्या मजदूर नहीं हम
धोखा और मजदूरों को दें
ऐसे तो मजबूर नहीं हम।
बोल अरी ओ.....
       बोल कि तेरी ख़िदमत की है
       बोल कि तेरा काम किया है
       बोल कि तेरे फल खाये हैं
       बोल कि तेरा दूध पिया है
      
       बोल कि हमने हश्र उठाया
       बोल कि हमसे हश्र उठा है
       बोल कि हमसे जागी दुनिया
       बोल कि हमसे जागी धरती।
बोल अरी ओ.....
                                 मजाज़ लखनवी
                  वो सुबह कभी तो आयेगी

इन काली सदियों के सर से
जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे
जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा
जब धरती नग़में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी—2
बीतेंगे कभी तो दिन आखिर
ये भूख के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत अख़िर
दौलत के इज़ारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया के
बुनियाद उठाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी......
मनहूस समाजी ढाँचों में
जब ज़ुल्म न पाले जायेंगे
जब हाथ न काटे जायेंगे
जब सर न उछाले जायेंगे
जेलों के बिना जब दुनिया की
सरकार चलाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी...
संसार के सारे मेहनतकश
खेतों से मिलों से निकलेंगे
बेघर, बेदर, बेबस इंसान
तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अमन, खुशहाली के
फूलॉ से सजाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी....
                         साहिर लुधियानवी
(नाज़िम हिकमत की मशहूर कविता जिसका सारी दुनिया में अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद किया गया है। हिन्दी रूपांतर—शिवमंगल सिद्धांतकर। नाज़िम हिकमत (1902 से 63) तुर्की भाषा के मशहूर कवि थे। वे वहाँ के कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े रहे थे। इस सिलसिले में वहाँ की सरकार ने उन्हें कई बार जेल में रखा। 1950 में जेल से रिहाई के बाद उन्हें देश छोड़ने को मजबूर होना पड़ा।)   

                       तुम्हारे हाथ

तुम्हारे हाथ पत्थरों की तरह संगीन हैं
जेल में गाये गये गीतों की तरह उदास हैं
बोझ ढोने वालों पशुओं की तरह
सख़्त हैं सख़्त हैं सख़्त हैं
तुम्हारे हाथ भूखे बच्चों के तमतमाये
चेहरों की तरह हैं
तुम्हारे हाथ मधुमख्खियों की तरह दक्ष हैं
ये जहाँ तुम्हारे हाथो पर नाचता रहता है
ये जहाँ।
            तुम्हारे हाथ........
आ मेरे लोगों आ मेरे लोगों
यूरोप के लोगों अमरीकी लोगों
सारी दुनिया के लोगों, तुम सतर्क हो, हिम्मती हो
फिर भी अपने हाथों की तरह खोये हुए हो
फिर भी तुम परवशी बनाये जाते रहे हो।
आ मेरे लोगों आ मेरे लोगों
            तुम्हारे हाथ.......
आ मेरे लोगों, आ मेरे लोगों
एशियाई लोगों, अफ्रीकी लोगों
मध्य पूर्व के लोगों, मेरे अपने देश के लोगों
तुम अपने हाथों की तरह घिसे हुये कठोर हो
तुम अपने हाथों की तरह तरोताज़ा युवा हो
तुम्हारे हाथ......

                          नाज़िम हिकमत      



                     बुनियाद हिलनी चाहिये



हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये,
अब हिमालय से कोई गंगा निकलनी चहिये।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिये।

हर सड़क पर हर, गली में, हर नगर, हर गांव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिये।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदली चाहिये।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिये।



                                  दुश्यंत कुमार



ज़िन्दगी की जीत में यक़ीन कर


तू ज़िन्दा है तू ज़िन्दगी की जीत में यक़ीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर।
सुबह-ओ- शाम के रंगे हुए गगन को चूम कर
तु सुन ज़मीन गा रही है कब से झूम-झूम कर
तु आ मेरा श्रृंगार कर तु आ मुझे हसीन कर
                      अगर कहीं है....

हज़ार भेष धर के आई मौत तेरे द्वार पर
मगर तुझे न छल सकी चली गयी वो हार कर
नई सुबह के संग सदा मिली तुझे नई उमर
                      अगर कहीं है.....
ये ग़म के और चार दिन सितम के और चार दिन
ये दिन भी जायेंगे गुज़र गुज़र गये हज़ार दिन
कभी तो होगी इस चमन पे भी बहार की नजर
                      अगर कहीं है……….


                                          इप्टा

जनगीत


 अभी वही है निज़ामे-कोहना


अभी वही है निज़ामें-कोहना अभी तो ज़ुल्मों-सितम वही है
अभी मैं किस तरह मुस्कुराऊं अभी तो रंजो-अलम वही है
नए ग़ुलामों अभी तो हाथों में है वही कास-ए-गदाई
अभी तो ग़ैरों का आसरा है अभी तो रस्मो-करम वही है
अभी कहाँ खुल सका है परदा अभी कहाँ तुम हुए हो उरियाँ
अभी तो रहबर बने हुए हो अभी तुम्हारा भरम वही है
अभी तो जम्हूरियत के साए में आमरीयत पनप रही है
हवस के हाथों में अब भी क़ानून का पुराना क़लम वही है
अभी वही हैं उदास राहें वही हैं तरसी हुई निगाहें
शहर के पैग़म्बरों से कह दो यहाँ अभी शामे-ग़म वही है
मैं कैसे मानूँ कि इन ख़ुदाओं की बन्दगी का तिलिस्म टूटा
अभी वही पीरे-मैक़दा है अभी तो शेख़ो-हरम वही है


                            
खलीलुर्रहमान आज़मी

रमाशंकर (विद्रोही) की कवितायेँ



धरम

मेरे गांव में लोहा लगते ही
टनटना उठता है सदियों पुराने पीतल का घंट,
चुप हो जाते हैं जातों के गीत,
खामोश हो जाती हैं आंगन बुहारती चूड़ियां,
अभी नहीं बना होता है धान,  चावल,
हाथों से फिसल जाते हैं मूसल
और बेटे से छिपाया घी,
उधार का गुड़,
मेहमानों का अरवा,
चढ़ जाता है शंकर जी के लिंग पर।
एक शंख बजता है और
औढरदानी का बूढ़ा गण
एक डिबिया सिंदूर में
बना देता है
विधवाओं से लेकर कुंवारियों तक को सुहागन।
नहीं खत्म होता लुटिया भर गंगाजल,
बेबाक हो जाते हैं फटे हुए आंचल,
और कई गांठों में कसी हुई चवन्नियां।
मैं उनकी बात नहीं करता जो
पीपलों पर घड़ियाल बजाते हैं
या बन जाते हैं नींव का पत्थर,
जिनकी हथेलियों पर टिका हुआ है
सदियों से ये लिंग,
ऐसे लिंग थापकों की माएं
खीर खाके बच्चे जनती हैं
और खड़ी कर देती है नरपुंगवों की पूरी ज़मात
मर्यादा पुरुषोत्तमों के वंशज
उजाड़ कर फेंक देते हैं शंबूकों का गांव
और जब नहीं चलता इससे भी काम
तो धर्म के मुताबिक
काट लेते हैं एकलव्यों का अंगूठा
और बना देते हैं उनके ही खिलाफ
तमाम झूठी दस्तखतें।
धर्म आखिर धर्म होता है
जो सूअरों को भगवान बना देता है,
चढ़ा देता है नागों के फन पर
गायों का थन,
धर्म की आज्ञा है कि लोग दबा रखें नाक
और महसूस करें कि भगवान गंदे में भी
गमकता है।
जिसने भी किया है संदेह
लग जाता है उसके पीछे जयंत वाला बाण,
और एक समझौते के तहत
हर अदालत बंद कर लेती है दरवाजा।
अदालतों के फैसले आदमी नहीं
पुरानी पोथियां करती हैं,
जिनमें दर्ज है पहले से ही
लंबे कुर्ते और छोटी-छोटी कमीजों
की दंड व्यवस्था।
तमाम छोटी-छोटी
थैलियों को उलटकर,
मेरे गांव में हर नवरात को
होता है महायज्ञ,
सुलग उठते हैं गोरु के गोबर से
निकाले दानों के साथ
तमाम हाथ,
नीम पर टांग दिया जाता है
लाल हिंडोल।
लेकिन भगवती को तो पसंद होती है
खाली तसलों की खनक,
बुझे हुए चूल्हे में ओढ़कर
फूटा हुआ तवा
मजे से सो रहती है,
खाली पतीलियों में डाल कर पांव
आंगन में सिसकती रहती हैं
टूटी चारपाइयां,
चौरे पे फूल आती हैं
लाल-लाल सोहारियां,
माया की माया,
दिखा देती है भरवाकर
बिना डोर के छलनी में पानी।
जिन्हें लाल सोहारियां नसीब हों
वे देवता होते हैं
और देवियां उनके घरों में पानी भरती हैं।
लग्न की रातों में
कुंआरियों के कंठ पर
चढ़ जाता है एक लाल पांव वाला
स्वर्णिम खड़ाऊं,
और एक मरा हुआ राजकुमार
बन जाता है सारे देश का दामाद
जिसको कानून के मुताबिक
दे दिया जाता है सीताओं की खरीद-फरोख़्त
का लाइसेंस।
सीताएं सफेद दाढ़ियों में बांध दी जाती हैं
और धरम की किताबों में
घासें गर्भवती हो जाती हैं।
धरम देश से बड़ा है।
उससे भी बड़ा है धरम का निर्माता
जिसके कमजोर बाजुओं की रक्षा में
तराशकर गिरा देते हैं
पुरानी पोथियों में लिखे हुए हथियार
तमाम चट्टान तोड़ती छोटी-छोटी बाहें,
क्योंकि बाम्हन का बेटा
बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है।
भूसुरों के गांव में सारे बाशिंदे
किराएदार होते हैं
ऊसरों की तोड़ती आत्माएं
नरक में ढकेल दी जाती हैं
टूटती जमीनें गदरा कर दक्षिणा बन जाती हैं,
क्योंकि
जिनकी माताओं ने कभी पिसुआ ही नहीं पिया
उनके नाम भूपत, महीपत, श्रीपत नहीं हो सकते,
उनके नाम
सिर्फ बीपत हो सकते हैं।
धरम के मुताबिक उनको मिल सकता है
वैतरणी का रिजर्वेशन,
बशर्ते कि संकल्प दें अपनी बूढ़ी गाय
और खोज लाएं सवा रुपया कर्ज़,
ताकि गाय को घोड़ी बनाया जा सके।
किसान की गाय
पुरोहित की घोड़ी होती है।
और सबेरे ही सबेरे
जब ग्वालिनों के माल पर
बोलियां लगती हैं,
तमाम काले-काले पत्थर
दूध की बाल्टियों में छपकोरियां मारते हैं,
और तब तक रात को ही भींगी
जांघिए की उमस से
आंखें को तरोताजा करते हुए चरवाहे
खोल देते हैं ढोरों की मुद्धियां।
एक बाणी गाय का एक लोंदा गोबर
गांव को हल्दीघाटी बना देता है,
जिस पर टूट जाती हैं जाने
कितनी टोकरियां,
कच्ची रह जाती हैं ढेर सारी रोटियां,
जाने कब से चला आ रहा है
रोज का ये नया महाभारत
असल में हर महाभारत एक
नए महाभारत की गुंजाइश पे रुकता है,
जहां पर अंधों की जगह अवैधों की
जय बोल दी जाती है।
फाड़कर फेंक दी जाती हैं उन सब की
अर्जियां
जो विधाता का मेड़ तोड़ते हैं।
सुनता हूं एक आदमी का कान फांदकर
निकला था,
जिसके एवज में इसके बाप ने इसको कुछ हथियार दिए थे,
ये आदमी जेल की कोठरी के साथ
तैर गया था दरिया,
घोड़ों की पूंछे झाड़ते-झाड़ते
तराशकर गिरा दिया था राजवंशों का गौरव।
धर्म की भीख,  ईमान की गरदन होती है मेरे दोस्त!
जिसको काट कर पोख्ता किए गए थे
सिंहासनों के पाए,
सदियां बीत जाती हैं,
सिंहासन टूट जाते हैं,
लेकिन बाकी रह जाती है खून की शिनाख़्त,
गवाहियां बेमानी बन जाती हैं
और मेरा गांव सदियों की जोत से वंचित हो जाता है
क्योंकि कागजात बताते हैं कि
विवादित भूमि राम-जानकी की थी।


पुरखे

नदी किनारे, सागर तीरे,
पर्वत-पर्वत घाटी-घाटी,
बना बावला सूंघ रहा हूं,
मैं अपने पुरखों की माटी।
सिंधु, जहां सैंधव टापों के,
गहरे बहुत निशान बने थे,
हाय खुरों से कौन कटा था,
बाबा मेरे किसान बने थे।
ग्रीक बसाया, मिस्र बसाया,
दिया मर्तबा इटली को,
मगध बसा था लौह के ऊपर,
मरे पुरनिया खानों में।
कहां हड़प्पा, कहां सवाना,
कहां वोल्गा, मिसीसिपी,
मरी टेम्स में डूब औरतें,
भूखी, प्यासी, लदी-फदी।
वहां कापुआ के महलों के,
नीचे खून गुलामों के,
बहती है एक धार लहू की,
अरबी तेल खदानों में।
कज्जाकों की बहुत लड़कियां,
भाग गयी मंगोलों पर,
डूबा चाइना यांगटिसी में,
लटका हुआ दिवालों से।
पत्थर ढोता रहा पीठ पर,
तिब्बत दलाई लामा का,
वियतनाम में रेड इंडियन,
बम बंधवाएं पेटों पे।
विश्वपयुद्ध आस्ट्रिया का कुत्ता,
जाकर मरा सर्बिया में,
याद है बसना उन सर्बों का
डेन्यूब नदी के तीरे पर,
रही रौंदती रोमन फौजें
सदियों जिनके सीनों को।
डूबी आबादी शहंशाह के एक
ताज के मोती में,
किस्से कहती रही पुरखिनें,
अनुपम राजकुमारी की।
धंसी लश्क रें, गाएं, भैंसें,
भेड़ बकरियां दलदल में,
कौन लिखेगा इब्नबतूता
या फिरदौसी गजलों में।
खून न सूखा कशाघात का,
घाव न पूजा कोरों का,
अरे वाह रे ब्यूसीफेलस,
चेतक बेदुल घोड़ो का।
जुल्म न होता, जलन न होती,
जोत न जगती, क्रांति न होती,
बिना क्रांति के खुले खजाना,
कहीं कभी भी शांति न होती।


नूर मियां!

आज तो चाहे कोई विक्टोरिया छाप काजल लगाए,
चाहे साध्वी ऋतंभरा छाप अंजन,
लेकिन असली घी का सुरमा,
तो नूर मियां ही बनाते थे ना!
कम से कम मेरी दादी का मानना तो यही था।
नूर मियां जब भी आते थे,
मेरी दादी सुरमा जरूर खरीदती थी।
एक सींक सुरमा आंखों मे डालो,
आंखें बादल की तरह भर्रा जाएं,
गंगा जमुना की तरह लहरा जाएं,
सागर हो जाएं बुढ़िया की आंखें।
जिसमें कि हम बच्चे झांके तो
पूरा का पूरा दिखें।
बड़ी दुआएं देती थी मेरी दादी,
नूर मियां और उनके सुरमे को।
कहती थी-
कि नूर मियां के सुरमे की वहज से तो ही
बुढ़ापे में बिटिहिनी बनी घूम रही हूं,
सुई में डोरा डाल लेती हूं।
और मेरा जी करे कहूं
कि ओ रे बुढ़िया!
तू तो है सुकन्या,
और तेरा नूर मियां है च्यवन ऋषि।
नूर मियां का सुरमा तेरी आंखों का च्यवनप्राश है।
तेरी आंखें, आंखें नहीं दीदा हैं,
नूर मियां का सुरमा सिन्नी है, मलीदा है!
और
वही नूर मियां पाकिस्तान चले गए!
क्यों चले गए पाकिस्तान, नूर मियां?
कहते हैं कि नूर मियां के कोई था नहीं,
तब क्या हम कोई नहीं होते थे नूर मियां के?
नूर मियां क्यों चले गए पाकिस्तान?
बिना हमको बताए?
बिना हमारी दादी को बताए हुए,
नूर मियां क्यों चले गए पाकिस्तान?
और अब न वे सुरमे रहे और न वो आंखें,
मेरी दादी जिस घाट से आई थीं,
उसी घाट गईं।
नदी पार से ब्याह कर आई थी मेरी दादी,
और नदी पार ही जाकर जलीं।
और मैं जब उनकी राख को
नदी में फेंक रहा था तो
मुझे लगा ये नदी, नदी नहीं,
मेरी दादी की आंखें हैं,
और ये राख, राख नहीं,
नूर मियां का सुरमा है,
जो मेरी दादी की आंखों में पड़ रहा है।
इस तरह मैंने अंतिम बार
अपनी दादी की आंखों में
नूर मियां का सुरमा लगाया।


कथा देश की

ढंगों और दंगों के इस महादेश में
ढंग के नाम पर दंगे ही रह गये हैं।
और दंगों के नाम पर लाल खून,
जो जमने पर काला पड़ जाता है।
यह हादसा है,
यहां से वहां तक दंगे,
जातीय दंगे,
सांप्रदायिक दंगे,
क्षेत्रीय दंगे,
भाषाई दंगे,
यहां तक कि कबीलाई दंगे,
आदिवासियों और वनवासियों के बीच दंगे
यहां राजधानी दिल्ली तक होते हैं।
और जो दंगों के व्यापारी हैं,
वे यह भी नहीं सोचते कि इस तरह तो
यह जो जम्बूद्वीप है,
शाल्मल द्वीप में बदल जाएगा,
और यह जो भरत खंड है, अखंड नहीं रहेगा,
खंड-खंड हो जाएगा।
उत्तराखंड हो जाएगा, झारखण्ड बन जायेगा,
छत्तीस नहीं, बहत्तर खंड हो जाएगा।
बल्कि कहना तो यह चाहिए कि
नौ का पहाड़ा ही पलट जाएगा।
न नौ खण्ड, न छत्तीस, न बहत्तर,
हजार खण्ड हो जाएगा,
लाख खण्ड हो जाएगा।
अतल वितल तलातल के दलदल
में धंस जाएगा,
लेकिन कोई बात नहीं!
धंसने दो इस अभागे देश को वहां-वहां,
जहां-जहां यह धंस सकता है,
दंगे के व्यापारियों की बला से
जब यह देश नहीं रहेगा,
कितनी खराब लगेगी दुनिया जब
उसमें भरत खंड नहीं रहेगा,
जम्बूद्वीप नहीं रहेगा,
हे भगवान!
जेएनयू में जामुन बहुत होते हैं
और हम लोग तो बिना जामुन के
न जेएनयू में रह सकते हैं
और न दुनिया में ही रहना पसंद करेंगे।
लेकिन दंगों के व्यापारी,
जम्बूद्वीप नहीं रहेगा तो
करील कुंज में डेरा डाल लेंगे,
देश नहीं रहा तो क्या हुआ,
विदेश चले जायेंगे।
कुछ लोग अपने घाट जायेंगे,
कुछ लोग मर जायेंगे,
लेकिन हम कहां जायेंगे?
हम जो न मर रहे हैं और न जी रहे हैं,
सिर्फ कविता कर रहे हैं।
यह कविता करने का वक्त नहीं है दोस्तो!
मार करने का वक्त है।
ये बदमाश लोग कुछ मान ही नहीं रहे हैं-
न सामाजिक न्याय मान रहे हैं,
न सामाजिक जनवाद की बात मान रहे हैं,
एक मध्ययुगीन सांस्कृतिक तनाव के
चलते
तनाव पैदा कर रहे हैं,
टेंशन पैदा कर रहे हैं,
जो अमरीकी संस्कृति की विरासत है।
ऐसा हमने पढ़ा है,
यह सब बातें मैंने मनगढ़ंत नहीं गढ़ी हैं।
पढ़ा है,
और अब लिख रहा हूं
कि दंगों के व्यापारी,
मुल्ला के अधिकार की बात उठा रहे हैं,
साहूकारों, सेठों, रजवाड़ों के अधिकार की बात
उठा रहे हैं।
इतिहास को उलट देने का अधिकार
चाहते हैं दंगों के व्यापारी।
लेकिन आज के जमाने में
इतिहास को उलटना सम्भव नहीं है,
इतिहास भूगोल में समष्टि पा गया है।
लड़ाइयां बहुत हैं-
जातीय, क्षेत्रीय, धार्मिक इत्यादि,
लेकिन जो साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई
दुनिया भर में चल रही है,
उसका खगोलीकरण हो चुका है।
वह उसके अपने घर में चल रही है,
अमरीका में चल रही है,
क्योंकि अमरीका अब
फादर अब्राहम लिंकन की लोकतंत्र
की परिभाषा से बहुत दूर चला
गया है।
और इधर साधुर बनिया का जहाज
लतापत्र हो चुका है,
कन्या कलावती हठधर्मिता कर रही है,
सत्यनारायण व्रत कथा जारी है।
कन्या कलावती आंख मूंद कर पारायण कर रही हैं
यह हठधर्मिता है लोगों!
मुझे डर है कि
जामाता सहित साधुर बनिया
जलमग्न हो सकते हैं,
तब विलपती कन्या कलावती के उठने
का कोई संदर्भ नहीं रह जाएगा,
न ही इंडिया कोलम्बिया हो पाएगा।
सपना चकनाचूर हो जायेगा
स्वप्न वासवदत्ता का!
कभी अमरीका में नॉवेल पायनियर हेमिंग्वे
ने आत्महत्या की थी,
क्यों की थी हेमिंग्वे ने आत्महत्या?
कुछ पता नहीं चला।
अमरीका में सिर्फ बाहरी बातों का ही पता
चलता है।
अंदर तो स्कूलों में बच्चे मार दिये
जाते हैं,
पता नहीं चलता।
हां, इतना पता है
कि हेमिंग्वे 20 वर्ष तक फिदेल
कास्त्रो के प्रशंसक बने रहे।
अब ऐसा आदमी अमरीका में
तनाव मुक्त नहीं रह सकता।
और टेंशन तो टेंशन,
उपर से अमरीकी टेंशन!
तो क्या हेमिंग्वे व्हाइट हाउस
का बुर्ज गिरा देते?
हेमिंग्वे ने इंडिसनकैम्प नामक गल्प लिखा।
मैं अर्जुन कैम्प का वासी हूं,
अर्जुन का एक नाम भारत है,
और भारत का एक नाम है इंडिया।
अर्जुन कैम्प से इंडियन कैम्प तक,
इंडिया से कोलंबिया तक,
वही आत्महत्या की संस्कृति।
मेरा तो जाना हुआ है दोस्तो,
गोरख पाण्डेय से हेमिंग्वे तक
सब के पीछे वही आंतक राज,
सब के पीछे वही राजकीय आतंक।
……..             ………
दंगों के व्यापारी
न कोई ईसा मसीह मानते हैं,
और न कोर्ट अबू बेन अधम।
उनके लिए जैसे चिली, वैसे वेनेजुएला,
जैसे अलेंदे, वैसे ह्यूगो शावेज,
वे मुशर्रफ और मनमोहन की बातचीत भी करवा सकते हैं,
और होती बात को बीच से दो-फाड़ भी
कर सकते हैं।
दंगों के व्यापारी कोई फादर-वादर नहीं
मानते,
कोई बापू-सापू नहीं मानते,
इन्हीं लोगों ने अब्राहम लिंकन को भी मारा,
और इन्हीं लोगों ने महात्मा गांधी को भी।
और सद्दाम हुसैन को किसने मारा?
हमारे देश के लम्पट राजनीतिक
जनता को झांसा दे रहे हैं कि
बगावत मत करो!
हिंदुस्तान सुरक्षा परिषद् का
सदस्य बनने वाला है।
जनता कहती है-
भाड़ में जाये सुरक्षा परिषद!
हम अपनी सुरक्षा खुद कर लेंगे।
दंगों के व्यापारी कह रहे हैं,
हम परिषद से सेना बुलाकर
तुम्हें कुचल देंगे।
जैसे हमारी सेनाएं नेपाल रौंद रही हैं,
वैसे उनकी सेनाएं तुम्हें कुचल देंगी।
नहीं तो हमें सुरक्षा परिषद का सदस्य
बनने दो और चुप रहो।
यही एक बात की गनीमत है
कि हिंदुस्तान चुप नहीं रह सकता,
कोई न कोई बोल देता है,
मैं तो कहता हूं कि हिंदुस्तान वसंत का दूत
बन कर बोलेगा,
बम की भाषा बोलेगा हिंदुस्तान!
अभी मार्क्सवाद जिंदा है,
अभी बम का दर्शन जिंदा है,
अभी भगत सिंह जिंदा है।
…………            ………….
मरने को चे ग्वेरा भी मर गए,
और चंद्रशेखर भी,
लेकिन वास्तव में कोई नहीं मरा है।
सब जिंदा हैं,
जब मैं जिंदा हूं,
इस अकाल में।
मुझे क्या कम मारा गया है
इस कलिकाल में।
अनेकों बार मुझे मारा गया है,
अनेकों बार घोषित किया गया है
राष्ट्रीय अखबारों में, पत्रिकाओं में,
कथाओं में, कहानियों में
कि विद्रोही मर गया।
तो क्या मैं सचमुच मर गया!
नहीं, मैं जिंदा हूं,
और गा रहा हूं,
कि
कहां चला गा उ सादुर च बनिया,
कहां चली गयी कन्या कलावती,
संपूर्ण भारत भा लता-पात्रम्।
पर वाह रे अटल चाचा! वाह रे सोनिया चाची!!
शब्द बिखर रहे हैं,
कविताएं बिखर रही हैं,
क्योंकि विचार बिफर रहे हैं।
हां, यह विचारों का बिफरना ही तो है,
कि जब मैं अपनी प्रकृति की बात सोचता हूं
तो मेरे सामने मेरा इतिहास घूमने लगता है।
मैं फण्टास्टिक होने लगता हूं
और सारा भूगोल,
उस भूगोल का
ग्लोब, मेरी हथेलियों पर
नाचने लगता है।
और मैं महसूसने लगता हूं
कि मैं खुद में एक प्रोफाउण्ड
उत्तर आधुनिक पुरुष पुरातन हूं।
मैं कृष्ण भगवान हूं।
अन्तर सिर्फ यह है कि
मेरे हाथों में चक्र की जगह
भूगोल है, उसका ग्लोब है।
मेरे विचार सचमुच में उत्तर आधुनिक हैं।
मैं सोचता हूं कि इतिहास को
भूगोल के माध्यम से एक कदम आगे
ले जाऊं
कि भूगोल की जगह
खगोल लिख दूं।
लेकिन मेरी दिक्कत है कि
जैसे भूगोल को खगोल में बदला जा सकता है,
वैसे ही इण्डिया को कोलम्बिया
नहीं शि‍फ्ट किया जा सकता।
कोलम्बिया- जो खगोल की धुरी है
और सारा भूगोल उसकी परिधि है
जिसमें हमारा महान देश भी आता है।
महान इसलिए कह रहा हूं
क्योंकि महान में महानता है।
जैसे खगोल की धुरी कोलंबिया है,
वैसे इस देश के महान विद्वान लोग
महानता की धुरी इण्डिया को मानते हैं।
अब यह विचार मेरे मन-मयूर को
चक्रवात की तरह चला रहा है कि
भगवान, देवताओं!
इण्डिया को कोलम्बिया शि‍फ्ट करना ठीक रहेगा,
कि स्वयमेव कोलम्बिया को ही
इण्डिया में उतार दिया जाय।
यह विचार है
जो बिफर रहा है।
इसमें इतिहास भी है,
और दर्शन भी,
कि आप जब हमारे यहां आएंगे
तो हम क्या देंगे,
क्योंकि हमारे पास बिछाने के लिये बोरियां भी नहीं हैं
मेरे महबूब अमरीका!
और जब हम आपके यहां आयेंगे
तो क्या लेकर आयेंगे,
क्योंकि मुझ सुदामा के पास
तंडुल रत्न भी नहीं है कॉमरेड कृष्ण!
इसलिए विचार बिफर रहे हैं
कि जब हमारा महान देश
सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य
बनेगा, जब उसे वीटो पावर
मिलेगी,
तब तक पिट चुका होगा,
लुट चुका होगा,
बिक चुका होगा।
जयचंद और मीर जाफर
अब इतिहास नहीं
वर्तमान के खतरे बन चुके हैं।
इससे भविष्य अंधकारमय दिखायी पड़ रहा है।
कालांतर में इस देश को
खरीद सकता है अमरीका,
नहीं, इटली का एक लंगड़ा व्यापारी
त्रिपोली।
तोपों के दलाल
साम्राज्यवाद के भी दलाल हैं।
वे काल हैं और कुण्डली मारकर
शेषनाग की तरह संसद को
अपने फन के साये में लिए बैठे हैं।
मुझे यह अभागा देश
कालिंदी की तरह लगता है
और ये सरकारें,
कालिया नाग की तरह।
विचार बिफर रहे हैं कि
हे फण्टास्टिक कृष्ण!
भगवान विद्रोही!
तुम विद्रोही हो,
कोई नहीं तो तुम क्यों नहीं
कूद सकते आंख मूंद कर
कालिया नाग के मुंह में।


तुम्हारा भगवान

तुम्हारे मान लेने से
पत्थर भगवान हो जाता है,
लेकिन तुम्हारे मान लेने से
पत्थर पैसा नहीं हो जाता।
तुम्हारा भगवान पत्ते की गाय है,
जिससे तुम खेल तो सकते हो,
लेकिन दूध नहीं पा सकते।


कवि

न तो मैं सबल हूं,
न तो मैं निर्बल हूं,
मैं कवि हूं।
मैं ही अकबर हूं,
मैं ही बीरबल हूं।


कविता और लाठी

तुम मुझसे
हाले-दिल न पूछो ऐ दोस्त!
तुम मुझसे सीधे-सीधे तबियत की बात कहो।
और तबियत तो इस समय ये कह रही है कि
मौत के मुंह में लाठी ढकेल दूं,
या चींटी के मुह में आंटा गेर दूं।
और आप- आपका मुंह,
क्या चाहता है आली जनाब!
जाहिर है कि आप भूखे नहीं हैं,
आपको लाठी ही चाहिए,
तो क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते है?
मेरी कविता वस्तुतः
लाठी ही है,
इसे लो और भांजो!
मगर ठहरो!
ये वो लाठी नहीं है जो
हर तरफ भंज जाती है,
ये सिर्फ उस तरफ भंजती है
जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूं।
मसलन तुम इसे बड़ों के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
छोटों के खिलाफ भांजोगे,
,
नहीं भंजेगी।
तुम इसे भगवान के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
लेकिन तुम इसे इंसान के खिलाफ भांजोगे,
,
नहीं भंजेगी।
कविता और लाठी में यही अंतर है।


परिभाषा

कविता क्या है
खेती है,
कवि के बेटा-बेटी है,
बाप का सूद है, मां की रोटी है।


नई खेती

मैं किसान हूं
आसमान मैं धान बो रहा हूं।
कुछ लोग कह रहे हैं,
कि पगले आसमान में धान नहीं जमता,
मैं कहता हूं कि
गेगले-घोघले
अगर जमीन पर भगवान जम सकता है,
तो आसमान में धान भी जम सकता है।
और अब तो
दोनों में एक होकर रहेगा-
या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा,
या आसमान में धान जमेगा।




(विद्राही जी की  पुस्तक नई खेती से साभार.)