यों कि जब तुम
अपने होटल पर
वेटर को फटकार लगाते हुए
मादर चोद और बहिन चोद
कह रहे हो
तब इस समय से कुछ समय पहले
मैं अपनी बहिन से अचानक पांच साल बाद मिला
चोरों की तरह !
उसका गला बोलना छोड कर आँखों में उतर आए कि इससे
पहले में उसे अलविदा कहता हुआ लौटा हूँ
मेरे दिमाग में किताबों के सड़ने की गंध है
मेरा सर भन्ना रहा है
मेरी आत्मा पर गर्म सलाखें बार - बार घुसाई जा रही है
मेरी बहिन अध्यापक कि पत्नी है
और पत्नियाँ चटनियाँ होती है
चटनियाँ हर धर्म और हर जात का
आदमी पसंद करता है
चटनियाँ सिल बट्टे पर पीसी जाती है
और सिल-बट्टे पत्थर के होते है
पत्थर पूजे जाते है
पूजा के नाम पर फूल तोड़कर
पत्थरों के आगे फेंक दिए जाते है
यही मेरे सैनिक पिता ने भी किया
हालाँकि मेरी बहिन
पीसा कि मीनार की तरह झुकी हुई है
न गिर सकती है और न खड़ी हो सकती है
तुम चाहो तो दुनिया के तमाम पुरुषों की तरह
उसे अजूबा घोषित कर सकते हो
हालाँकि
मेरे जीजे के लिए मेरी बहिन से बेहतर
दूसरा मूक जानवर
दूसरा मूक जानवर
इस धरती में कोई नही है
अध्यापक होते हुए वह
एक बेटी का बाप भी है
और दुनिया किसी के बाप की नही
जबकि बाप सारी दुनिया के है
बहने तुम्हारी भी हैं
और मेरी भी
बहने पत्नियाँ भी होती है
और पत्नियाँ बहने भी
ये कैसी सप्तपदी है
जो बलत्कार को भी
संस्कारों में तब्दील करती है
ये कौन लोग है
जो हर शाम हाथों में रस्सियाँ पकड़कर
पड़ोसियों से कह रहे होते है
कि ये हमारा आपस का मामला है
और पडोसी गूगे होकर
अपने दरवाजे बंद करते हुए
खोल लेते है खिड़कियाँ
पडोसी भी जानते है
चीखें हवा बनकर
खिडकियों से भीतर पहुँच ही जाएगी
पंचनामा भरते हुए
पुलिस जेबों में पैसा ठूस ही लेगी
अपनी बेटियों के कन्यादान के लिए
बाप अपने सर के बोझ को हल्का कर ही लेंगे कैसे भी
भाई अपनी बहनों की शादी हो चुकने के बाद
आजाद होकर
दुसरे की बहनों के एक्सरे कर सकेंगे खुले आम
लिखते हुए भी भर रहा हु घृणा से
अब लौट रहा हूँ घर, बाजार से
अपनी बहिन की आँखों को याद करते हुए
अचानक फिर किसी की बहिन की चीखें
आती है सड़क पर
मैं दौड़ता हूँ ,चीखें चीर देती है
हवाओं के मोहक पर्दे को
देखता हूँ दीगर मजहब का
आदमी फिर पीटे जा रहा है
अपनी पत्नी को
सराब के नशे में धुत्त
फिर वो ही बात
कि ये आपस का मामला है
हालाँकि उसके लिए सराब हराम है धर्म की किताब में
लेकिन फिर भी वो पीता है
पत्नी को हरामी साली कहते हुए
जबकि पत्नी के गले में पड़ी
लायलान की रस्सी का एक सिरा
उसके उन्ही हाथों में है
जिन हाथों ने कभी
साथ देने के खोकले वादों के
साथ हाथ पकड़ा था
मुझे फिर मेरी बहिन याद आती है
देखते-देखते उस चीखती औरत का चेहरा
मेरी बहिन के चेहरे में तब्दील हो जाता है
मैं समझ पाता हूँ
कि हम बात -बात पर माँ बहिन की गाली क्यों देते है
और यह भी की
मैं खुद के पुरुष होने का दोष किसे दूं
रुकते हुए मेरे कदम आगे बढ़ते है
मैं खच्चर में तब्दील होते
पुरुषों की लम्बी कतार देखता हूँ
जो बस्तियों से दूर
रेत ढोते हुए दिखाई दे रहे हैं
इस वक्त भी
और एक बच्ची कह रही है
धरती कभी नही सूखेगी
मैं उसका चेहरा अपनी
अपनी दोनों हथेलियों में थाम लेता हूँ
और उसका चेहरा देखते -देखते
दहकते हुए आग के गोले में बदल जाता है
इस बार मेरी बहिन की आँखों में
आंसू नही बारूद जैसी कोई चीज होती है
और मामले भी अब
पति-पत्नी के बीच के न होकर सारी औरतों के हो जाते है
इस बार मैं अपनी बहिन से चोरों की तरह नही
भाई की तरह मिलता हूँ
--------------------------------------------------------अनिल कार्की (२१-०१ -२०१२ स्थान-पिथोरागढ़ (उत्तराखंड) ०९४५६७५७६४६)