देर से ही भले इस बात का एहसास होने लगा है कि, कुमाऊँनी कविता करवट ले रही है इस बीच मनोज उप्रेती की कविताओं के दो संकलन प्रकाशित हुए ‘अद्राण स्वैंण’ और ‘क्याप-क्याप’ । फिलहाल पुस्तक ‘क्याप-क्याप’ को लेकर कुछ बाँतें, मनोज उप्रेती पहाड़ों से निकल रही वह मौन दहाड़ है, जिसमें पहाड़ी नदी का वेग है, जिसके एक छोर पर हिमालय तो दूसरे छोर पर मैदान है।
नये भाव बोध और बदलते प्रतिमानों, उपमानों, समाजिक राजनीतिक दबावों को व्यक्त करने के लिए कुमाऊँनी कविता को जिस तेवर की जरूरत थी उसका परिमार्जित स्वर मनोज उप्रेती की कविताओं में देखने को मिला पहली बार कुमाऊँनी कविता का यह नया सौन्दर्य देखकर एहसास हुआ कि लोकभाषा के आदिम तत्वों के बीच समकालीन परिवेश की गूंज को भरा जा सकता है। हो सकता है कि उनका प्रवासी कवि के रूप मे मूल्यांकन किया जाय पर यह गलत होगा। मैं हमेशा मानता हूँ कि कविता जटिल मानवीय भावों की सरल अभिव्यक्ति है, चाहे वह लोक गायकों की भाषा हो या पढ़े -लिखे लोगों की भाषा लोक और देश की सीमाओं में नहीं बांधी जा सकती है।
कुमाऊँनी साहित्य के मूल्यांकन के पैमाने भले ही कुछ भी हों यह आचार्य एंव हिन्दी विभागों की जिम्मेदारी है पर जनता और धूर-जंगलों मे कान पर अंगुली डाले घस्यारिनों और ग्वालों को क्या पसंद है, किस कविता में उनके जीवन तत्व हैं, ये वे तय करगें, इधर पहाड़ अब झोड़ा,चांचरी का या ढोल-नगाड़ो का पहाड़ नहीं रहा आधुनिकता और उत्तर-आधुनिक, नव-साम्राज्यवाद , उत्तर आधुनिक समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का असर उस पर भी वैसे ही पड़ा है जैसे देश-दुनिया पर बाँधों से बधे वर्तमान परिस्थितियों का असर क्या यहाँ की भाषाओं, संवेदनाओं में नहीं पड़ा है? क्या परम्परागत त्यौहारों के स्वरूप नहीं बदले है? क्या गाँव से नगरों(अल्मोड़ा, हल्द्वानी ,बागेशर, पिथौरागढ़, चम्पावत, रामनगर)के तरफ लोग खास कर फौजी परिवार नहीं सरक रहे है? पहाड़ों का यह नगरीकरण एक अलग किस्म के सौन्दर्यशास्त्र की माँग कर रहा है, युवा और बेरोजगार कितने भाई हल जोत रहे है? कोई नहीं। एम0ए0, बी0ए0 पढ़े-लिखे नौजवान पहाड़ी युवाओं में जो वर्तमान समय के दबाव है, विसंगति, विडम्बना और तनाव है,वह एक दम अलग नहीं है, देश दुनिया के युवाओं की तरह ही है। जिस संस्कृति पर नाज़ किये जाने का आग्रह अक्सर कविताओं में आज तक देखने को मिल रहा था कुछ राजनैकि विचारों और नयी चेतना के कवियों को छोड़कर,अधिकतर कविताओं में संवेदना के नाम पर एक अजीब उदासीपन, नास्टेलेजियापन था, या फिर विरह में विलखते पहाड़ों की नारी का विरहालाप था, जिससे पहाड के स्त्री-पुरुष संबधों में परपीड़क बनाम स्वपीड़क (मासोईज्म और शैडोईज्म) की गंध थी। क्या अब वो परिस्थियाँ हैं? और अगर है भी तो हमें उसको नकारते हुए पोखर के मेढकी टर्रटराहट से बाहर निकल कर नयी चुनौतीयों को स्वीकार करते हुए समय के खिलाफ लामबद्व होना ही होगा। सामाजिक परिवर्तनों को भी अगर नयी पीड़ी अपना रही है तो उसमें क्या हर्ज इसमें पहाड़ विमुखता या प्रवासीपन का आरोप या फिर संस्कृति के खत्म होने की घोषणाएं कितनी जायज है? और वैसे भी संस्कृति का संस्कृत होना भाषाओं का मरना और प्रगतिशीलता का गला घोंटना होता है। नयी पीड़ी के रचनात्मक लोग इस बात को समझ रहें हैं। और यही सही दिशा है। क्या हमारी महिलाएं गोठ प्रवास या फिर अछूतपन से मुक्त होने की अधिकारी नहीं है? क्या हम चाहते है कि वह अब भी हमारी माँओं की तरह जंगल जाए और ऊँचे टीलों पर चढ़कर अपने सैनिक पति के याद में गीत गायें? नहीं, अगर आज के जीवन से और कविता से यह आशा की जाय तो मुझे लगता है कि साहित्य को भी रूढ़ हो जाना चाहिए। आज कौन सा ऐसा व्यक्ति है जो प्रवासी नहीं है। क्या प्रवासी वह अपनी मर्जी से है? अस्सी के बाद तेजी से जो बदलाव हुए हैं उनकी तह तक जाना होगा खड़न्चे और भूमिया देवताओं के मन्दिरों का सौन्दर्यीकरण करने में खर्च विधायक निधियाँ क्या इसकी जिम्मेदार नहीं? क्या सरकारों का मेले त्यौहारों का आयोजक होकर उनके उदघाटन में फीता काटना संस्कृति का संरक्षण है? जिन लोक गायकों पर नाज करते हुए बुद्धजीवी कभी नहीं अघाते क्या वह भी जिन्दा हैं? दरवाजों की देहरी पर बैठा वह लोक गायक अब आधुनिक मानव के मुक्ति का प्रतीक है। अपनी ढोल की थाप पर तथाकथित बामनों और ठाकुरों के इष्ट को ताल-बेताल नचा देने वाला वह आदमी अब कहाँ गायब है और क्यों है? इसकी क्या वजहें हैं?, क्यों कविता में लय नहीं है? क्यों बाण के मन्दिरों में मुर्गी काटने वाला और सैम के मन्दिर का भौकर बनाने वाला दिल्ली में एडिदास का जूता, बिस्कुट, गाड़ी के पुर्जें या फिर गार्ड के कपड़े पहने चमचमाते भवनों के गेट पर खड़ा है। यह शेखर जोशी के दाज्यू का वेटर नहीं, यह पहाड़ी रूढ़ परंपराओं से विद्रोह करने वाला तपका है। वेटर होते हुए भी अब तुम्हें दाज्यू नहीं कहेगा और तुम उस भनमजुएं से दाज्यु सुनने को तरशते रहोगे। नई पीड़ी पर पहाड़ विमुख होने का घटिया आरोप लगाते रहोगे। खैर अब इस आरोप को मनोज उप्रेती ने पूरी तरह खारिज कर दिया है। हो सकता है कि कुछ रसवादी आचार्यों के गले उनकी संशलिष्ट यथार्थ, विचार और फंतासी से भरी कविताएं न उतरे, पर बेइज्जत होना ही रचनात्मकता और गतिषीलता की पहली षर्त है। यह सब तो करना ही पड़ेगा अब कविता के लिए आलोचना और सौन्दर्य शास्त्र की जरूरत है, न की आलोचना के लिए कविता की। मनोज उप्रेती ने जिन सूक्ष्म संवेदनाओं को औजार की तरह इस्तेमाल किया है, कविता की पकड़ के साथ-साथ अनुभूति की प्रामाणिकता और भोगे हुए यथार्थ के साथ- साथ संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना का ऑथेंटिक चित्र है, जिसमें समकालीन भारतीय साहित्य के साथ चलने की क्षमता है। इसमें कोई संदेह नहीं, कविता को मनोज उप्रेती ने जिस तरह अभिजात और तुक्कों के सरदारीपन से मुक्त करके आम आदमी के मनोरंजन के स्तर पर नहीं, चेतना के स्तर पर प्रहार किया है। वह पहाड़ पर हो रही कविताओं के प्रति आशा की नज़र देखने को प्रेरित करता है। उनकी कविता आज के त्रासदी, कुठां और उकताहट व मोहभंग से भरे आमजन का औजार है, उनके षब्दों में जो धार है, वह बखिया नहीं उधेड़ती बल्कि सत्ता की दीवार तोड़ती हुई जन युद्ध का ऐलान करती है। इसलिए मनोज उप्रेती बेझिझक नई संवेदनाओं का कवि है।
पैं उठो
दियो टुक्याव
यल डान बटी
पल डान तलै
एक बटियो
ठाड़ है जाओ
उठै लियो नाँगर निषाण
उन लिजी
जो छिनण री हमार हक
मनोज उप्रेती जन चेतना एंव राजनीतिक वैचारिक दृष्टिकोण के कवि हैं उनमें कोरी भावुकता नहीं है और न कविता में बयानबाजी, वो पहाड़ी जनमानस के प्रतिनिधि कवि के रूप में आम जन के अन्तर्विराधों को मुखर करते हैं-
गुस्स के पावण सीख रौ हमूल
ज्वाला मुखी जस शान्त रूण
सीख रौ हमूल
आन्दोलन में कूँदण नीं भूलाय हमूँल।
सर्वहारा वर्ग के प्रति सहानुभूति और सत्ताओं की मीठी बयानबाजी में छिपे निहित वर्गीय उद्देश्यों को वह जनकवि नागार्जुन , गोरख, फ़ैज, पाश , रघुवीर, धूमिल की तरह किसी भी राजनैतिक हलचल की तह में उतरकर उसका पर्दाफाश करते हैं। उम्मीद के दीपक को जलाने और सूर्य के प्रकाश पर सन्देह करने में भी नहीं हिचकते।
सूर्ज के कामक
जो नि दिखाओ बाट
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उ ह वैर
नानू- नान दी भल
जो भर दी उज्याव
अन्यार अमूसी रातों में,
या फिर सत्ता के ठेकेदारों पर तीखा कटाक्ष करते हुए लिखते हैं-
काग़जों क इतर हाल
गरीब, अभाव, भूख
भान मासणी नानतिन
फाटी भिदाड़
टालों पर टाल
चिर पड़ी ल्वै टपकणी खुट
भात पकुणी मासाब
घाम तापणी नानातिन
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कर दिया उद्घाटन
भैर-भैर बटी
छन आया भीतेर
कै बात नी भय
बास-खूस में
य हमारी दुनिया की नुमाइस छू
हम देखि ल्यूँल
उनकी कविताओं में सघन अनुभूतियों की चित्रात्मकता है, जिसमें परदेष गए बेटे के समझौते भी हैं, और गाँव के प्रति गहन लगाव भी। एक तरफ रोजी-रोटी से समझौते तो दूसरी और पहाड़ से लगाव इन सबके बीच आधुनिक दबाव और महानगरीय बोध ओर शहरों का उकताहट भरा जीवन जिसमें एक अंतहीन दौड़ है। इस बीच कहीं रचनाकार एकान्त होता है या उकताहट का एहसास होता है तो उसका पांखी मन गाँव की ओर भागता है, निसंदेह इस स्थिति में कामगार व्यर्थताबोध से भरता है और अजनबीपन उसे आ घेरता है, वर्तमान परिस्थितियों के दबाव से अधबीच में ही आधुनिक मानव का इश्तहार बनाकर मल्टीनेशनल कम्पनियों के विज्ञापनों सा, भीड़ भरे चौराहों पर टाँग दिया जाता है। मनोज जी की कविता ‘क्याप-क्याप’ में इस अन्तरद्वन्द्व की सटीक अभिव्यंजना हुई है-
उ चाखुड़ पकड़ी गोय
पकड़ बेर वी खिड़की बाट
भैर धकियाई गोय
मह सोचणीं री कृत्रिमता स्वाद चाखी
उ चौड़ कै, कौल भैर जबै
आपण दगड़ियों थें
साची या द्याल लालच
भीतेर एक बख्त जाँणक
नये उपमानों के साथ फिर जटिल जीवनानुभवों को व्यक्त करते हुए कहते हैं-
नारिङ़ व पिरीतिक बास नि छिपाइन
उकें ले तो पिरीत छी कृत्रिमता दगै
यो कृत्रिमता ले भली छू
ललचैं दें
इस तरह से अपने समकालीन यथार्थ को पकड़ते हुए वक्त के नज़ाकत को आखों की पुतलियों में बसाते हैं, उम्मीद की बाट भी जोहते हैं, और वक्त के खिलाफ़ आवाज़ भी उठाते हैं। अपने समय की गोलबन्दी करने का उनका अन्दाज उन्हें भारतीय साहित्य के समकालीन तो खड़ा करता ही है, कई बार वो देश की हदों को भी पार कर जाते हैं।
और ग़रज के साथ कहते हैं-
पहाड़ आपण हम छोड़ नि सकन
अपणी बात तोड़ नि सकन
इतुक ले नि भाय आय कमजोर
और फिर इस गहन निराशा के परिदृश्य के बीच संघर्श और उम्मीद का लाल सूरज उगाने में लग जाते हैं-
कै दिन तलै ढपोक शंख बजाला
लाट-काल-ढुन दगड़ियों भरोसल नाचला
देखणी सब तुमरि लुट-पाट
क दिन तलै चलल झुठ राजपाठ
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उज्याव हुण फैगो
और कतु दिन अन्यार
सूरज के डराला
वह अफसर, नेता, भूमाफियाओं को सीधे जनता की अदालत में खड़ा कर उनसे प्रश्न पूछते है-
कटुक डबल हमार उडै़ गया।
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यो लगाल इसिके गणमणाट
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कभै बिजुलि कभै पाणिक कचकचाट
मनोज उप्रेती कोरी भावुकता और लगाव के कवि नहीं हैं, वह गतिशील यथार्थ को पैनी निगाह से पकड़ते हैं। संवेदनाओं, भावनाओं और भावुकता को विचारों की लगाम में कस कर कविता को आम जन के लिए उपयोगी बनाते हैं। उनका यही दृष्टिकोण जानता है कि प्रतिरोध का रास्ता इतनी जल्दी तैयार नहीं हो सकता और ना ही जल, जंगल और जमीन के हक की लड़ाई एक दिन में तैयार हो सकती है। इसके लिए एक लम्बी प्रोसेस की जरूरत होगी लेकिन जब यह लड़ाई षुरू होगी निष्चित है जीत आम जन-मन की होगी। इसी उम्मीद में वे अपनी कविता ‘माठू-माठू में लिखते हैं-
चाँचरी झोड़ा फिर भभकाल,
पहाड़क् चीज दुनि में चमकाल
घटक फितड़ फिर घुमल
पहाड़ अपनी नई पोंध देखी झुमल,
ये अलग बात है कि कुमाऊँनी हिन्दी कविता और कुमाऊँनी कविता में वर्तमान में मोहभंग का स्वर प्रमुख है। जन आकांक्षाओं और राज्य निर्माण के बाद के परिदृश्य ने न केवल यहाँ के आम जनमानस को प्रभावित किया है, बल्कि पृथक राज्य की पोल खुल चुकी है। इसलिए मोहभंग समकालीन कुमाऊँनी साहित्य का प्रमुख स्वर है या प्रवृत्ति है। अद्वाइ, तुम आया, अंधेर चल तुमडि बाटै-बाट, चित्तवृत्ति, हौरी माया, द्विमुखी राँख, ठाँगर और लागुल, हाल- चाल, पर उनकी कविताएं का स्वर प्रगतिशील ही ल हैं, उनमें बात को कहने का जो अंदाज है उससे पता चलता है उनकी रचनाओं में क्या सम्भावनाएं हैं। कविता का रचना विधान स्वयं में बन पड़ा है, जिसमें कवि के यथार्थवादी दृष्टिकोण और अनुभव की प्रामाणिकता की महत्वपूर्ण भूमिका है। भाषा सहज और सरल है, बिम्ब, प्रतीक, फैन्टसी, तनाव ,विसंगति कविताओं को समकालीन जीवन बोध से जोड़ती है। मनोज उप्रेती की लम्बी कविताएं अपने आप में अनूठी हैं उनकी आन्तरिक लय , अन्विति, विचार और संष्लिश्ट यथार्थ युगीन परिस्थियों की संवेदना, भवुकता औैर लगाव का आदिम दस्तावेज है। समकालीन कुमाऊँनी कविता अपने मूल्याँकन के नये सौन्दर्यशास्त्र की माँग कर रही है। इस दिशा की ओर बुद्धिजीवियों का ध्यान जाना जरूरी है, नही तो हमारे समय के कवियों और उनकी कविताओं का सही मूल्यांकन नहीं हो पायेगा। इसलिए इस नई धारा के रचनाकारों को एक जुट होने की जरूरत है।
अनिल कार्की
शोध छात्र हिंदी
डी0एस0बी0परिसर नैनीताल
भाल लाग्णों
ReplyDeleteछ्यूल जागण भ्हैठ गयीं
दिन आल
सबनैक हाथन जै होली
एक दिन
कुमाँउनिक मशाल ।
वर्ड वेरिफिकेशन हटै दिना तो यां लेखण आसान है जाल।
काग़जों क इतर हाल
ReplyDeleteगरीब, अभाव, भूख
भान मासणी नानतिन
फाटी भिदाड़
टालों पर टाल
चिर पड़ी ल्वै टपकणी खुट
भात पकुणी मासाब
घाम तापणी नानातिन
इति मार्मिक शब्दोंक अर्थ समझ में नि आए इन लोगो नि आल शायद फिर ले
इजा लिजी ममता और बाज्यू लिजी सम्मान,
थम लियो डोर अपणी मात्र भाषा की अपार छ यतक ज्ञान
भौत भौत आभार यो लेखा लिजी