Saturday 12 November 2011

काव्य गोष्ठी

विगत दिनों प्रतिरोध ने डी०एस ० बी ०परिसर नैनीताल में छात्रों की काव्य गोष्ठी की जिनमें से कुछ छात्रों की कवितायेँ हम यहाँ दे रहे  हैं

 त्रिवेणी


(1)   न जाने कब खिलते हैं कब मर जाते हैं
       इन फूलों पे नज़र पड़ती नहीं किसी की
       क्यों उस अंधे खुदा को बागवाँ बना रक्खा है।।

(2) कितनी धूल जम गयी है चेहरों पर
     वक़्त गुज़र जाता है ग़र्द उड़ा के रोज़
     बहुत दिनों बाद आज ये तस्वीरें साफ की हैं।।

(3)    उसके बेदाग़ चेहरे को गौर से देखोगे तो
       कई आंसूओं के  दाग़ नज़र आ जाएगें
       स्याही दर्दो की उबरन से कहाँ जाती है भला।।

(4)  फिर आहंग से भर लायी है कलाई अपनी
       चूड़ीवाला गुज़रा था मुहल्ले से अभी
       लड़कियाँ बहुत जल्दी बड़ी हो जाती हैं।।
                                 
संदीप रावत, बी0 एस सी०, तृतीय वर्ष 


 
खनक

सिक्के की खनक
दूर तलक
जाती है
लोग जान जाते हैं, कि
सिक्का ही है
चाहे वह फर्श  पर गिरे
या कि जेब में खनके
बच्चे-बूढ़े सब पहचानते हैं
नयी फसल की महक
बहुत दूर तक जाती है
धान के खेत से, कल शाम को ही लौटा हूँ
ऐसा लगता है कि अब तक गमक रहा हूँ
हवा के माफित
खूशबू, बिखर ही जाती है
मील-दो-मील फैल जाती है
खेतों में बालियाँ खनकती हैं
लगता है सब के सब सोने के सिक्के हैं
पूरा खेत जैसे सोने का है
खूशबूदार सोना
चमकदार सोना
मैं जब भी उदास होता हूँ
मन करता है, खेतों में जाऊँ
सोने के खेत!
कभी देखा हैं आपने?
फसल पकती है तो फिर खेत में
हँसियाँ खनकती है
हँसियों की खनक दूर-बहुत-दूर तलक जाती हैं
हँसिये की खनक दिल्ली तलक जाती है
हँसिया खनकने के साथ साथ चमकती भी है
उसकी ये चमक मामूली नहीं है
बहुत धारधार है,
हँसिया चमकती है
बेशक चमकती है और खनकती है

सिक्का और सोना
ये दोनों भी चमकते हैं और खनकते हैं
और जब ये साथ मिलकर
खनकते हैं और चमकते हैं।
तो ये प्रतिबिंबिंत होते हैं-
मुम्बई और अमेरिका के शेयर बाजारों में
देष के  पूंजीपतियों में दलालों में
किसानों की बेबस निगाहों में
और दोस्तो, मेरे अपने दोस्तों
ये प्रतिबिंबिंत होता है
भूख से लड़ते आदम आकृतियों में
32 रूपये रोज कमाने वाले
 अमीरों में .                                                                                                                

     (२)
 गुलों की नहीं अब खार की ज़रूरत है
 पानी की नहीं अब अँगार की ज़रूरत है
 जो एक बार उठ जाये तो इंक़लाब आ जाए
  देश  को ऐसे बयार की ज़रूरत है  
                                                                                     
  मनीष पाण्डेय
 पत्रकारिता विभाग,कु0 वि0 वि0 नैनीताल 
  मो0 न0-7500195908


थोड़ा सा प्यार 

थोड़ा सा प्यार
इस दुनिया में आने के बाद,
जन्मी मैं एक बेटी बनकर
मन था मेरा एकदम सच्चा
लगा मुझे सब बहुत ही अच्छा।
पहले देखा अपनी माँ को
कितनी सुन्दर   कितनी प्यारी
उसका प्यार पाने के बाद
आयी पापा की बारी।
क्या दोष था मेरा पापा!
मुझे तो कुछ भी न था पता
मेरे आने से पहले तो, खुश थे आप
फिर अचानक क्या हुआ जो हो गये इतने निराश
पापा मैं वही आपकी बेटी, आज इतनी बुरी हो गई
मेरे आने की ख़ुशी , न जाने कहाँ खो गई।
पल गुजरते - गुजरते सब जान गई मैं,
वाह- रे ! दुनिया तेरी रीत पहचान गई मैं
पहले तो मुझे सिर्फ अपनों ने दुत्कारा
फिर न मिला समाज से भी सहारा।
एकदम अकेली, लड़ती हुई इस जिंदगी से
जूझते हुए सबका सामना करती गई
सोचा, बना लूगीं ससुराल को अपना,
लेकिन, था ये सिर्फ एक सपना।
पहले मारा अपनी इच्छाओं को,
फिर आई आत्मा की बारी
एक-एक कर मैंने ये ज़िंदगी
पूरी तरह बदल डाली।
तब भी पायी वही मार, वही दुत्कार
न जाने कितने ऐसे
जुल्म सहती आई अपार।
सब कुछ सहते हुए भी
मैं करती गई अपना कर्म,
हाय! ये कैसा न्याय
न आयी ज़रा भी  शर्म।
क्या पाया मैंने खुद को खोके,
क्या पाया मैंने इतना रोके
पयी तो सिर्फ मार और दुत्कार
कैसे कहूँ, मैंने तो चाहा था, सिर्फ थोड़ा-सा प्यार।।
                                                                     
 -स्वाति सक्सेना, बी. एस सी. तृतीय वर्ष

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