Wednesday 9 November 2011

जनगीत


                                 बोल अरी ओ धरती बोल

बोल अरी ओ धरती बोल
राज सिंहसन डांवा डोल
       बादल बिजली रैन अंधियारी
       दुख की मारी परजा सारी
बच्चे बूढ़े सब दुखिया हैं
दुखिया नर है दुखिया नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है
सब बनिये हैं सब व्यापारी
बोल अरी ओ.....
       क्या अफरंगी क्या तातारी
       आँख बची और बरछी मारी
       कब तक जनता की बेचैनी
       कब तक जनता की बेज़ारी
       कब तक सरमाये के धन्धे
कब तक ये सरमायेदारी।
                     बोल अरी ओ.....
नामी और मशहूर नहीं हम
लेकिन क्या मजदूर नहीं हम
धोखा और मजदूरों को दें
ऐसे तो मजबूर नहीं हम।
बोल अरी ओ.....
       बोल कि तेरी ख़िदमत की है
       बोल कि तेरा काम किया है
       बोल कि तेरे फल खाये हैं
       बोल कि तेरा दूध पिया है
      
       बोल कि हमने हश्र उठाया
       बोल कि हमसे हश्र उठा है
       बोल कि हमसे जागी दुनिया
       बोल कि हमसे जागी धरती।
बोल अरी ओ.....
                                 मजाज़ लखनवी
                  वो सुबह कभी तो आयेगी

इन काली सदियों के सर से
जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे
जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा
जब धरती नग़में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी—2
बीतेंगे कभी तो दिन आखिर
ये भूख के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत अख़िर
दौलत के इज़ारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया के
बुनियाद उठाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी......
मनहूस समाजी ढाँचों में
जब ज़ुल्म न पाले जायेंगे
जब हाथ न काटे जायेंगे
जब सर न उछाले जायेंगे
जेलों के बिना जब दुनिया की
सरकार चलाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी...
संसार के सारे मेहनतकश
खेतों से मिलों से निकलेंगे
बेघर, बेदर, बेबस इंसान
तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अमन, खुशहाली के
फूलॉ से सजाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी....
                         साहिर लुधियानवी
(नाज़िम हिकमत की मशहूर कविता जिसका सारी दुनिया में अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद किया गया है। हिन्दी रूपांतर—शिवमंगल सिद्धांतकर। नाज़िम हिकमत (1902 से 63) तुर्की भाषा के मशहूर कवि थे। वे वहाँ के कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े रहे थे। इस सिलसिले में वहाँ की सरकार ने उन्हें कई बार जेल में रखा। 1950 में जेल से रिहाई के बाद उन्हें देश छोड़ने को मजबूर होना पड़ा।)   

                       तुम्हारे हाथ

तुम्हारे हाथ पत्थरों की तरह संगीन हैं
जेल में गाये गये गीतों की तरह उदास हैं
बोझ ढोने वालों पशुओं की तरह
सख़्त हैं सख़्त हैं सख़्त हैं
तुम्हारे हाथ भूखे बच्चों के तमतमाये
चेहरों की तरह हैं
तुम्हारे हाथ मधुमख्खियों की तरह दक्ष हैं
ये जहाँ तुम्हारे हाथो पर नाचता रहता है
ये जहाँ।
            तुम्हारे हाथ........
आ मेरे लोगों आ मेरे लोगों
यूरोप के लोगों अमरीकी लोगों
सारी दुनिया के लोगों, तुम सतर्क हो, हिम्मती हो
फिर भी अपने हाथों की तरह खोये हुए हो
फिर भी तुम परवशी बनाये जाते रहे हो।
आ मेरे लोगों आ मेरे लोगों
            तुम्हारे हाथ.......
आ मेरे लोगों, आ मेरे लोगों
एशियाई लोगों, अफ्रीकी लोगों
मध्य पूर्व के लोगों, मेरे अपने देश के लोगों
तुम अपने हाथों की तरह घिसे हुये कठोर हो
तुम अपने हाथों की तरह तरोताज़ा युवा हो
तुम्हारे हाथ......

                          नाज़िम हिकमत      



                     बुनियाद हिलनी चाहिये



हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये,
अब हिमालय से कोई गंगा निकलनी चहिये।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिये।

हर सड़क पर हर, गली में, हर नगर, हर गांव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिये।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदली चाहिये।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिये।



                                  दुश्यंत कुमार



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